उन्नीसवीं सदी बंगाल में उदित हुएं "नबीन बाब" नबीन चन्द्र दास, खानदानी शक्कर के व्यापारी, कलकत्ते की सड़कों पर भाग आजमाते थे। उन्होंने संदेश(रसगुल्ला) की दुकान सजाई, खाते खाते स्वादियों का गला सूख जाता, ग्राहक जब पानी मांगते तो नॉबीन बाबू को अखरता था, नोबीन दा ऐसा कुछ देना चाहते थे कि मिष्ठान प्रेमी मिठास का रस तो ले पर गले की नमी ना गंवाए, और नई सी एक कहानी चल पड़ी...
ये उन्नीसवीं सदी का बंगाल था। रामकृष्ण, रबीन्द्रनाथ, इश्वरचंद्र और केशवचंद्र सेन् का कलकत्ता, बंगाल के क्षीरसागर में मंथन हो रहा था, अध्यात्म, कला, संगीत और व्यापार की नई तरंगे उठती थी, और नोबीन दा बागबाजार की छोटी दुकान में प्रयोग पर प्रयोग कर रहे थे।
कभी दूध को नींबू से फाड़ते तो कभी दही से कभी पौना भाग शक्कर का पतला रस तो कभी बराबर अनुपात की चाशनी, कभी मद्धम आंच की दोस्ती तो कभी पूरी लपट का बुखार, छैने की गेंद कभी टूटी, कभी बिखरी, कभी जली तो कभी रस से ना भर पाई... मीठे का वैज्ञानिक प्रयोग करता रहा देग की परखनली में।
देसी ज्ञान की टेक छोड़ नोबीन बाबू ने पुर्तगाली तरीके से दूध फाड़ा और किस्मत की देवी मुस्कुरा उठी, गाय के दूध का छैना, एक तार की चाशनी, खूब उबली हुई, और नंद के आनंद भए, जय रसगुल्ला लाल की!
अजी हंगामा मच गया!
कलकत्ते में बवाल कट गया!!
ओ मां गो! फोटाफटी... गोंडोबोल...उड़ी बाबा... दारुन...खूब भालो.... सब एक साथ हो गया!
रामकृष्ण मठ के वीतराग साधु हों या शांतिनिकेतन के गुरुदेव, बहू बाज़ार के मारवाड़ी और फोर्ट विलियम के बाबू लोग, रसगुल्ले पूरे कलकत्ते और फिर बंगाल में सर्दियों की धूप की तरह पसरते चले गए।
हिन्दुस्तानी अपने खाने और recipes को लेकर बड़े possessive होते हैं, बंगाली अपने घराने के पांच - फोरोन (पांच मसालों का मिश्रण) का नुस्खा भी किसी को नहीं बताती, पर नोबीन दा तो स्वाद के देवता थे वे तो अपनी recipes हर आदमी को बताना चाहते थे उनके अनुसार रसगुल्ला एक पावन संदेश था जो हर घर में पहुंचाने योग्य था क्योकि "पैगाम पहुंचना चाहिए, पैगम्बर कोई भी हो"
जैसे जो महत्ता Bill Gates की कम्प्यूटर के प्रसार में है, स्वामी विवेकानंद की अद्वैत का शंख फूंकने में है, Einstein का relativity को खोज निकालने में है, वैसे ही आज नोबीन दा की रसगुल्ला प्रतिष्ठा में है और आज
नोबीन दा का रसगुल्ला विश्व भर के लोगों के स्वाद का जायका पड़ा रहा है ।
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